हाल ही में बॉम्बे हाई कोर्ट ने एक सवाल किया था की क्या एक महिला के अपने पति के सहमति के बिना गर्भावस्था को समाप्त करने के फैसले को हिन्दू विवाह अधिनियम के तहत क्रूरता कहा जा सकता है। मुम्बई हाइकोर्ट के जस्टिस ने कहा कि एक महिला को बच्चे को जन्म देने के लिए मजबूर नहीं किया जा सकता है।
कोर्ट ने कहा कि पति की अपील को भी स्वीकार किया जाता है। यह अच्छी तरह तय है कि एक महिला का प्रजनन विकल्प रखने का अधिकार उसकी व्यक्तिगत स्वतंत्रता का एक अविभाज्य हिस्सा है जैसा कि भारत के सम्बिधान के अनुच्छेद 21 के तहत परिकल्पित है।
उच्च न्यायालय ने यह भी कहा कि शादी के बाद काम पर जाने की इच्छा रखने वाली महिला को क्रूरता नहीं कहा जायेगा।पीठ ने पारिवारिक अदालत के उस आदेश के खिलाफ पति द्वारा दायर अपील को खारिज कर दिया।
क्या था पूरा मामला-
पति ने क्रूरता और परित्याग के आधार पर अपनी पत्नी से तलाक मांगा , उन्होंने आरोप लगाया कि 2001 में उनकी शादी की शुरुआत के बाद से उनकी पत्नी ने काम करने पर जोर दिया , पति की सहमति के बिना अपनी दूसरी गर्भावस्था को समाप्त करने आरोप भी महिला पर है पति ने दावा किया कि उसकी पत्नी ने 2004 में अपने बेटे ले साथ घर छोड़ दिया ,कभी वापस नहीं लौटीं।
इसके बाद पत्नी ने अपने वकील ले मध्यम से तर्क दिया कि उसने अपने पहले बच्चे को जन्म दिया है जो उसे मातृत्व की स्वीकृति का संकेत देता है। दूसरी गर्भवस्था को उसकी बामारी में समाप्त कर दिया था और उस आदमी ने 2004 -2012 तक उसे घर लाने या अपने बेटे की आजीविका के लिए कोई भुगतान नहीं किया था । इसके अलावा उसने घर इसलिए छोड़ दिया था क्योंकि पति और उसकी बहनें लगातार उसके चरित्र पर शक कर रही थीं।